भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
तू छोड़ रहा है, तो ख़ता इसमें तेरी क्या
हर शख्स शख़्स मेरा साथ, निभा भी नहीं सकता
प्यासे रहे जाते हैं जमाने के सवालात
किसके लिए जिन्दा ज़िन्दा हूँ, बता भी नहीं सकता
घर ढूंढ ढूँढ रहे हैं मेरा , रातों के पुजारीमैं हूँ कि चरागों चराग़ों को बुझा भी नहीं सकता
वैसे तो एक आँसू ही बहा के मुझे ले जाए
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता.
</poem>