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मेघदूत / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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मेरी श्रुतियों में प्रवेश करता है .
मैं भारत की पूर्वी सीमा पर
उसी हरियाले बंग देश में बैठा हूँ
जहाँ कवि जयदेव ने किसी वर्षा के दिन
दिगंत के तमाल-वन की श्यामल छाया देखी थी,
मेघों से मेंदुर,पूर्ण आकाश देखा था.
आज दिन अंधकारमय है,
वृष्टि झर-झर झर रही है,
पवन अत्यंत दुरंत है,
उसके आक्रमण से अरण्य बाहें उठाकर हाहाकार कर रही है.
शून्य वर्षा में प्रखर हँसी हँसकर
मेघ मंडल को वेध
विद्युत् झाँकी मारती है .
अँधेरे बंद गृह में अकेला बैठकर
मई मेघ दूत पढ़ रहा हूँ.
मेरे गृह-त्यागी मन ने
मुक्तगामी मेघों की पीठ पर आसन जमा लिया है.
वह देश-देशान्तर में उड़ रहा है.
सानुमान आम्रकूट कहाँ है ?
शिलाओं में बाधित गति वाली
वह निर्मल कृशकाय रेवा नदी
विंध्य के चरणों पर कहाँ बहती है ?
वेगवती के तीर पर
पके फलों से श्याम दिखने वाला दशार्ण ग्राम
जंबू-वन की छाया में कहाँ छिपा हुआ है ?
कहाँ है खिली हुई केतकी के बाड़े से वेष्टित वह स्थान
जहाँ ग्राम पक्षियों ने वन को कलरव से पूर्ण कर
रस्ते की बगल के पेड़ों पर
अपने वर्षाकालीन नीड बांधे हैं .
न जाने, जुही के वन में विहार करने वाली वनांगनाकिस नदी के तीर पर घूम रही है !तपे हुए कपोल की गर्मी से उसके करणोंत्प्ल मुरझा रहे हैं,मेघ की छाया के लिये वह विकल हो रही है. वे कौन सी नारियाँ हैं.भ्रू-संचालन नहीं सीखा है ?जन-पद की वे वधूतियाँआकाश में सघन घटा को देखकर आँखे ऊपर कर जब बादलों को देखती है तब मेघों की नील-छाया उनके सुनील नयनों में पड़ जाती है.मेघों से श्याम वह कौन सा शैल है जिसकी शिला पर मुग्ध सिद्धान्गनाएँ स्निग्ध, नवीन जलदों को देखती हुईअनमनी होकर बैठी थी ?सहसा भयानक झंझा के कारण वे भय से थर-थर कांपने लगीं.वस्त्र सम्भालकर वे कन्दराओं में आश्रम खोजती फिरती है और कहती जाती हैं, "मैया री !लगता है, झंझा गिरि-श्रृंग को ही उड़ा कर ले जायेगी."
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