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|रचनाकार=मनु 'बे-तख़ल्लुस'
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
फ़िक्र में रोज़ी की फिरता मारा मारा आदमी
आदमी को हो भी तो कैसे गवारा आदमी

जिसने बोला, आदमी का है गुजारा आदमी
आदमी ने उसके मुंह पर दे के मारा आदमी

इतनी मुश्किल कब थी पहले पेट की ज़द्दो-ज़हद
तीन बूढी औरतों को, इक कुंवारा आदमी ?

फितरतन कोई किसी का भी नहीं, पर सब कहें
ये हमारा आदमी है, वो तुम्हारा आदमी

नित नए मजहब में बांटो आदमी को इस क़दर
या बचे मज़हब जहां में, या बेचारा आदमी

आदमी गोया कचौड़ी और मठरी हो गया
थोड़ा सा खस्ता है लेकिन, है करारा आदमी

बात ये भी चाशनी में घोल कर कहनी पड़ी
बातों में ऐसी मिठास, और इतना खारा आदमी ?

पेड़, बच्ची,मुर्गी तो मुंसिफ के घर की दाल हैं
क़ैद बस उसको हुई है, जिसने मारा आदमी

आदमी से रोज अंतिम सीख लेता है मगर
आदमी से सीखता है, फिर दोबारा आदमी

माँ के औरतपन के दिन तो जाने कब के लद गए
बाप में अब भी बचा है , ढेर सारा आदमी

'बे-तख़ल्लुस' फ़िक्र है तो आने वाले कल की है
अब तलक तो आदमी का है सहारा आदमी
</poem>