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|सारणी=दोहावली / कबीर
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निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।
विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥
सन्त समागम परम मिले सुख, जान अल्प सुख और ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय । <BR/>मान सरोवर हंस हैसेवा कीजै साधु की, बगुला ठौरे ठौर जन्म कृतारथ होय ॥ 621 622 ॥ <BR/><BR/>
साधु दरशन महाफलदरश को जाइये, कोटि यज्ञ फल लेह जेता धरिये पाँय । <BR/>इक मन्दिर को का पड़ीडग-डग पे असमेध जग, नगर शुद्ध करिलेह है कबीर समुझाय ॥ 631 632 ॥ <BR/><BR/>
॥ भेष के विषय मे दोहे ॥
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस । <BR/>ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥ <BR/><BR/>
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल । <BR/>बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥ <BR/><BR/>
साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार । <BR/>बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥ <BR/><BR/>
तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय । <BR/>सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥ <BR/><BR/>
जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार । <BR/>गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥ <BR/><BR/>
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव । <BR/>क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥ <BR/><BR/>
गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द । <BR/>कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥ <BR/><BR/>
पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय । <BR/>तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥ <BR/><BR/>
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख । <BR/>कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥ <BR/><BR/>
मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग । <BR/>तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥ <BR/><BR/>
भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान । <BR/>बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥ <BR/><BR/>
कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट । <BR/>मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥ <BR/><BR/>
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम । <BR/>मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥ <BR/><BR/>
फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल । <BR/>साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥ <BR/><BR/>
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । <BR/>दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥ <BR/><BR/>
धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग । <BR/>गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥ <BR/><BR/>
घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग । <BR/>बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥ <BR/><BR/>
॥ भीख के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष । <BR/>कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥ <BR/><BR/>
अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख । <BR/>जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥ <BR/><BR/>
माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं । <BR/>तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥ <BR/><BR/>
माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख । <BR/>कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥ <BR/><BR/>
उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर । <BR/>अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥ <BR/><BR/>
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह । <BR/>यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥ <BR/><BR/>
सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि । <BR/>कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥ <BR/><BR/>
अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय । <BR/>कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥ <BR/><BR/>
अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष । <BR/>उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥ <BR/><BR/>
॥ संगति पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय । <BR/>दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥ <BR/><BR/>
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । <BR/>कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥ <BR/><BR/>
कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय । <BR/>सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥ <BR/><BR/>
मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग । <BR/>कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥ <BR/><BR/>
साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह । <BR/>कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥ <BR/><BR/>
साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग । <BR/>संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥ <BR/><BR/>
साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय । <BR/>कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥ <BR/><BR/>
गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार । <BR/>मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥ <BR/><BR/>
संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय । <BR/>कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥ <BR/><BR/>
भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय । <BR/>सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥ <BR/><BR/>
तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल । <BR/>काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥ <BR/><BR/>
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान । <BR/>काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥ <BR/><BR/>
कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव । <BR/>मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥ <BR/><BR/>
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय । <BR/>कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट । <BR/>
ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह । <BR/>पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥ <BR/><BR/>
ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय । <BR/>संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥ <BR/><BR/>
जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय । <BR/>जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥ <BR/><BR/>
दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय । <BR/>कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥ <BR/><BR/>
जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय । <BR/>ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥ <BR/><BR/>
प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय । <BR/>जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥ <BR/><BR/>
कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय । <BR/>विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥ <BR/><BR/>
सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात । <BR/>गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥ <BR/><BR/>
तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज । <BR/>तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥ <BR/><BR/>
मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ । <BR/>ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥ <BR/><BR/>
लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति । <BR/>अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥ <BR/><BR/>
साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग । <BR/>कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥ <BR/><BR/>
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग । <BR/>लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥ <BR/><BR/>
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल । <BR/>संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥ <BR/><BR/>
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय । <BR/>ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥ <BR/><BR/>
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत । <BR/>साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥ <BR/><BR/>
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय । <BR/>ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥ <BR/><BR/>
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग । <BR/>मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय । <BR/>जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥ <BR/><BR/> तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय । <BR/>जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥ <BR/><BR/>