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|रचनाकार=यश मालवीय
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[[Category:गीत]]{{KKCatGeet}}<poem>
दीवारों से भी बतियाने की ज़िद है
 
हर अनुभव को गीत बनाने की ज़िद है
 
दिये बहुत से गलियारों में जलते हैं
 
मगर अनिश्चय के आँगन तो खलते हैं
 
कितना कुछ घट जाता मन के भीतर ही
 
अब सारा कुछ बाहर लाने की ज़िद है
 
जाने क्यों जो जी में आया नहीं किया
 
चुप्पा आसमान को हमने समझ लिया
 
देख चुके हम भाषा का वैभव सारा
 
बच्चों जैसा अब तुतलाने की ज़िद है
 
कौन बहलता है अब परी कथाओं से
 
सौ विचार आते हैं नयी दिशाओं से
 
खोया रहता एक परिन्दा सपनों का
 
उसको अपने पास बुलाने की ज़िद है
 
सरोकार क्या उनसे जो खुद से ऊबे
 
हमको तो अच्छे लगते हैं मंसूबे
 
लहरें अपना नाम-पता तक सब खो दें
 
ऐसा इक तूफान उठाने की ज़िद है
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