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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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आदिवासीजब आततायी मारे जाते हैं
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रचनाकार: [[मदन कश्यपप्रियदर्शन]]
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ठण्डे लोहे-सा अपना कन्धा ज़रा झुकाओहमें उस पर पाँव रख कर लम्बी छलाँग लगानी हैमुल्क को आगे ले जाना हैबाज़ार चहक रहा हैऔर हमारी बेचैन आकाँक्षाओं के साथ-साथ हमारा आयतन भी बढ़ रहा हैतुम तो कुछ घटो रास्ते से हटोएक
तुम्हारी स्त्रियाँ कपड़े क्यों पहनती हैंधूप धम-धम नगाड़ा बजा रही हैवे तो ऐसी ही अच्छी लगती बन्दूकें ताने खड़े हैंपेड़तुम्हारे बच्चे स्कूल क्यों जाते हैंसन्नाटे को सूँघ रही है उमसाई हुई जासूस हवानदी यहाँ से वहाँ तक(इसमें धर्मान्तरण बारूद की साजिश तो नहीं)तरह बिछी हुई हैतुम तो अनपढ़ ही अच्छे लगते होआततायियों से युद्ध के लिए तैयार है जंगल
बस, अपना यह जंगल नदी पहाड़ हमें दे दोहम इन्हें निचोड़ कर देश को आगे ले जाएँगेदुनिया में अपनी तरक्की का मादल बजाएँगेऔर यदि बचे रहे तो तुम्हें भी नाचने-गाने के लिए बुलाएँगे
देश के लिए हम इतना सब कर रहे आततायियों का इन्तज़ार करोतुम्हें मालूम है, वे आएँगेतुम्हें मालूम है, वे कहर ढाएँगेतुम्हारी पीठ पर हैंउनकी चाबुक के ख़ुरदरे निशानतुम्हारे पेट पर है उनके बूटों के रगड़े जाने से बने दाग़तुम्हारी यादों में है एक जमा हुआ ख़ौफ़तुम्हारे दिल में है एक धधकता हुआ गुस्साआततायियों का इन्तज़ार करोतुम्हें मालूम है,एक दिन वे मारे जाएँगे ।तुम इतना भी नहीं कर सकते !तुम्हारे हाथों ।
तुम्हारी भाषा अब गन्दी हो गई हैउसमें विचार आ गए हैंतुम्हारी सँस्कृति पथ-भ्रष्ट हो गई हैउसमें हथियार आ गए हैंख़तरनाक होती जा रही हैं तुम्हारी बस्तियाँकेवल हमारी दया पर बसी नहीं रहना चाहतींतीन
हमने तो बहुत पहले मरना-मारना दोनों बुरा हैन अत्याचार करो, न अत्याचार सहोलेकिन जितना पुराना यह सबक हैउतनी ही सब कुछ तय कर दिया थापुरानी यह सच्चाईतुम्हें बोलना नहीं गाना आना चाहिएकि अत्याचार भी बचा हुआ है, आततायी भी बचे हुए हैंपढ़ना नहीं नाचना आना चाहिएकि यह दुनिया डरती रहती हैसोचना नहीं डरना आना चाहिएमरती रहती हैअब तुम्हीं कभी-कभी भटक मरने का शोक भी करती रहती है ।लेकिन जब आततायी मारे जाते होहैं,कोई शोक नहीं करता ।
तुम्हें कौन-सी बानी बोलनी हैकौन-सा धर्म अपनाना हैकिस बस्ती में रहना हैकब कहाँ चले जाना हैयह तय करने का अधिकार तुम्हें नहीं हैचार
सबसे मुश्किल होता है आततायियों को पहचानना ।जो सबसे पहले पहचान लिए जाते हैं,वे सबसे कमज़ोर या नासमझ होते हैंवे छोटे और मामूली लोग होते हैंवे मोहरे जिनका सिर कटा कर बचे रहते हैं भविष्य के बादशाह ।असली आततायी मीठा बोलते हैंबोलने से पहले तोलते हैंहाथों में दस्ताने चढ़ाते हैंखंजर में सोना मढ़ाते हैंउन पर अँगुलियों के निशान मिटाते हैंऔर बिल्कुल उस वक़्त जब तुम तो उनसे पूरी तरह बेख़बर या आश्वस्तअपना अगला क़दम रख रहे होते हो, वे तुम्हें मार डालते हैंतुम जान भी नहीं पाते कि तुम मारे गए होयह ख़ुदक़ुशी है, अख़बार चीख़ते हैंनहीं, यह बीमारी है, सरकार चीखती है।कोई डॉक्टर नहीं बताता कि यह बीमारी क्या है।आततायी बसवादा करता है कि वह बीमारी से भी लड़ेगा । पाँच आततायी से लड़ना आसान नहीं होताइसके कई ख़तरे होते हैंपकड़ लिया जाना, जो पीटा जाना, सताया जाना, मार दिया जाना--कुछ भी हो सकता है ।ये छोटे ख़तरे नहीं हैं ।लेकिन असली और सबसे बड़ा ख़तरा एक और होता है ।आततायी से लड़ते-लड़तेहम कहते भी हो जाते हैं आततायी ।वह करोबेकार झमेले में मत पड़ोमारा जाता है, शहीद हो जाता हैहम मारे जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता । छह आततायी सबसे ज़्यादा किस चीज़ से डरो हमारी भाषा से डरोडरता है ?हमारी सँस्कृति इन्साफ़ से।जब इन्साफ़ संदिग्ध हो जाए तो वह सबसे ज़्यादा ख़ुश होता है ।ताउम्र वह इसी कोशिश में जुटा रहता हैकि इन्साफ़ छुपा रहे ।उसकी सारी इनायतें, सारी रियायतें बस इसीलिए होती हैंकि इन्साफ़ की तरह पहचानी जाएँकि चन्द राहतें पैदा करती रहें इन्साफ़ की उम्मीदऔर चलता रहे उसका खेल ।वह जुर्म भी करे तो इन्साफ़ मालूम होऔरजब उसे मारा जाए तो वह इन्साफ़ नहीं जुर्म लगे । सात मैं क़ातिलों के साथ नहीं खड़ा हो सकताहर तरह की हत्या को ख़ारिज करती है मेरी कविताआततायी से डरो हमारे राष्ट्र से डरो !मुक़ाबले के लिए आतयायी हो जाना मुझे मंज़ूर नहींलेकिन कोशिश भी करूँ तो आततायी के मारे जाने परकोई अफ़सोस मेरे भीतर नहीं उपजता ।मुझे माफ़ करें ।
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