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असंतोष / जयशंकर प्रसाद

7 bytes added, 15:25, 17 अक्टूबर 2007
खेलता शिशु होकर आनन्द।
क्षुद्र ग्रह किन्तु सुख मूल;  उसी में मानव जाता भूल।
बात जँजती कुछ नहीं यथार्थ।
जहाँ सुख मिला न उसमें तृप्ति,  स्वपन-सी आशा मिली सुषुप्ति।
हुआ वह लघिमा का व्यापार।
तुम्हारा मुक्तामय उपहार  हो रहा अश्रुकणों का हार।
सिन्धु-सा तैर गया उस पार।
न हो जब मुझको ही संतोष,  तुम्हारा इसमें क्या हैं दोष?