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Kavita Kosh से
गिरता रहा वादी-ए-पुरखार<ref>सूखी पत्तियों की वादी</ref> में मुसलसल<ref>लगातार</ref> लमहा
ज़र्द<ref>पीली</ref> होती गई है ये माज़ीवादी-ए-वादीमाज़ी<ref>बीते समय की वादी</ref> फिर भी
मुन्तज़िर<ref>प्रतीक्षारत</ref> है नए रंग लिए, मिले कल लमहा
देखो सब्ज़<ref>हरे</ref> नहीं होते, यहाँ दोबारा से नज़ारे
जब चाहा के मुस्तक़िल<ref>लगातार</ref> इक लमहे में रहें हम