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रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 2

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|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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|पीछे=रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 1
|आगे=रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 3
|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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<poem>
मंजूषा में धर तुझे वज्र कर मन को,
धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को।
 
‘‘संयोग, सूतपत्नी ने तुझको पाला,
ले चल, मैं उनके दोनों पाँव धरूँगी,
अग्रजा मान कर सादर अंक भरूँगी।
 
 
 
‘‘पर एक बात सुन, जो कहने आयी हूँ,
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