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किताबें झाँकती हैं / गुलज़ार

1 byte removed, 05:48, 1 सितम्बर 2013
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|रचनाकार=गुलज़ार
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<poem>
किताबें झाँकती है बंद अलमारी के शीशों से
क़िताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा...!!
</Poempoem>