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Kavita Kosh से
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इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ;
मत बुझाओ !जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी !!
पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले
अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ
आँसूओं से जन्म दे-देकर हँसी को
एक मंदिर के दियेदिए-सा जल रहा हूँ;
मैं जहाँ धर दूँ कदम वह राजपथ है;
मत मिटाओ !पाँव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी!
बेबसी मेरे अधर इतने न खोलो
जो कि अपना मोल बतलाता फिरूँ मैं इस कदर नफ़रत न बरसाओ नयन से प्यार को हर गाँव दफनाता फिरूँ मैं एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूँ। हूँमत बुझाओ। बुझाओ!जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी!
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है,
सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है;
मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ,
मत सुखाओ!
मैं खिलूँगा, तब नई बगिया खिलेगी!
शाम ने सबके मुखों पर आग मल दी
मैं जला हूँ, तो सुबह लाकर बुझूंगा
आँसूओं को देखकर मेरी हँसी तुम
मत उड़ाओ!
मैं न रोऊँ, तो शिला कैसे गलेगी!!
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