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}}
{{KKCatKavita}}<poem>दीप, जिनमें स्नेहकन ढाले गए हैं<br>वर्तिकाएँ बट बिसुध बाले गए हैं<br>वे नहीं जो आँचलों में छिप सिसकते<br>प्रलय के तूफ़ान में पाले गए हैं<br><br>
एक दिन निष्ठुर प्रलय को दे चुनौती<br>हँसी धरती मोतियों के बीज बोती<br>सिंधु हाहाकार करता भूधरों का गर्व हरता<br>चेतना का शव चपेटे, सृष्टि धाड़ें मार रोती<br><br>
एक अंकुर फूटकर बोला कि मैं हारा नहीं हूँ<br>एक उल्का-पिण्ड हूँ, तारा नहीं हूँ<br>मृत्यु पर जीवन-विजय उदघोष करता<br>मैं अमर ललकार हूँ, चारा नहीं हूँ<br><br>
लाल कोंपल से गयी भर गोद धरती की<br>कि लौ थी जगमगाई,<br>लाल दीपों की प्रगति-परम्परा थी मुस्कराई,<br>गीत, सोहर, लोरियाँ जो भी कहो तुम<br>गोद कलियों से भरे लोनी-लता झुक झूम गायी<br>और उस दिन ही किसी मनु ने अमा की चीर छाती<br>मानवी के स्नेह में बाती डुबायी<br>जो जली ऐसी कि बुझने की बुझायी-<br>बुझ गयी, शरमा गयी, नत थरथरायी<br><br>
और जीवन की बही धारा जलाती दीप सस्वर<br>आग-पानी पर जली-मचली पिघलने लगे पत्थर<br><br>
जल उठे घर, जल उठे वन<br>जल उठे तन, जल उठे मन<br>जल उठा अम्बर सनातन<br>जल उठा अंबुधि मगन-मन<br>और उस दिन चल पड़े थे साथ उन्चासों प्रभंजन<br>और उस दिन घिर बरसते साथ उन्चासों प्रलय-घन<br><br>
अंधड़ों में वेग भरते वज्र बरबस टूट पड़ते<br>धकधकाते धूमकेतों की बिखर जाती चिनगियाँ<br>रौद्र घन की गड़गड़ाहट कड़कड़ाती थी बिजलियाँ<br><br>
और शिशु लौ को कहीं साया न था, सम्बल नहीं था<br>घर न थे, छप्पर न थे, अंचल नहीं था<br>हर तरफ़ तूफ़ान अन्धड़ के बगूले<br>सृष्टि नंगी थी अभी बल्कल नहीं था<br><br>
सनसनाता जब प्रभंजन लौ ध्वजा-सी फरफराती<br>घनघनाते घन कि दुगुणित वेदना थी मुस्कराती<br>जब झपेटों से कभी झुक कर स्वयं के चरण छूती<br>एक लोच कमान की तारीकियों को चीर जाती<br><br>
बिजलियों से जो कभी झिपती नहीं थी<br>प्रबल उल्कापात से छिपती नहीं थी<br>दानवी तम से अकड़ती होड़ लेती<br>मानवी लौ थी कि जो बुझती नहीं थी<br>क्योंकि उसको शक्ति धरती से मिली थी<br>हर कली जिस हवा पानी में खिली थी<br><br>
सहनशीलता, मूकतम जिसकी अतल गहराइयों में<br>आह की गोड़ी निगोड़ी खाइयों में<br>स्नेह का सोता बहा करता निरंतर<br>बीज धँसता ही चला जाता जहाँ जड़ मूल बनकर<br>गोद में जिसके पला करता विधाता विवश बनकर<br><br>
धात्री है वह सृजन के पंथ से हटती नहीं है<br>व्यर्थ के शिकवे प्रलय-संहार के रटती नहीं है<br>जानती है वह कि मिट्टी तो कभी मिटती नहीं है<br>आग उसकी ही निरंतर हर हृदय में जल रही है<br><br>
स्वर्ण दीपों की सजीव परम्परा-सी चल रही है<br>हर अमा में, हर ग्रहन की ध्वंसपूर्ण विभीषिका में<br>एक कसकन, एक धड़कन, बार-बार मचल रही है<br>बर्फ की छाती पिघलकर गल रही है, ढल रही है<br><br>
आज भी तूफान आता सरसराता<br>आज भी ब्रह्माण्ड फटता थरथराता<br>आज भी भूचाल उठते, क़हर ढहता<br>आज भी ज्वालामुखी लावा उगलता<br><br>
एक क्षण लगता की जीत गया अँधेरा<br>एक क्षण लगता कि हार गया सवेरा<br>सूर्य, शशि, नक्षत्र, ग्रह-उपग्रह सभी को<br>ग्रस रहा विकराल तम का घोर घेरा<br><br>
किंतु चुंबक लौह में फिर पकड़ होती<br>दो दिलों में, धमनियों में रगड़ होती<br>वासना की रूई जर्जर बी़च में ही<br>उसी लौ की एक चिनगी पकड़ लेती<br><br>
और पौ फटती, छिटक जाता उजाला<br>लाल हो जाता क्षितिज का वदन काला<br>देखते सब, अंध कोटर, गहन गह्वर के तले पाताल की मोटी तहों को<br>एक नन्ही किरण की पैनी अनी ने छेद डाला,<br>मैं सुनाता हूँ तुम्हें जिसकी कहानी<br>बात उतनी ही नयी है, हो चुकी जितनी पुरानी<br>जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी<br><br/poem>
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