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इक ख़त / हरकीरत हकीर

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<poem>अभी -अभी कोई पत्ता फूटा है
तेरे ख़त की सतरों के साथ
कुछ कब्रों के शीशे अपने आप टूट गए हैं
और वह गुलाब जो
मेरी किताब में मुरझाया सा पड़ा था
कब्र के पास खिल पड़ा है
खिला तो उस दिन भी था
जिस दिन तेरे हाथों ने उस किताब को
पहली बार छुआ था …

क्या हुआ …
अगर तुम्हारे पास सुनहरी धूप है
मैंने भी मिटटी के बर्तन में
कुछ किरणे संभाल ली हैं
अँधेरे के बाद इक सूरज उगता है जिस्म में
फिर खत्म नहीं होती सुब्ह कभी ….

ज़िन्दगी के गिर गए रंग
फिर -फिर पिघल उठते हैं
मेरे आस -पास
और मैं …
हक़ीर से हीर हो जाती हूँ
तेरे एहसास अब
मेरे साँस लेने लायक हो गए हैं
घुलती रहती है खुशबू हवाओं में
जो चुन लेती है सारी पीर जिस्म की
और रूह से भी हलकी हो जाती हूँ
अगर तुम शब्दों की देह धरकर न आते
मेरे सामने कभी
मैंने ज़िन्दगी भर पानी में
कीलें गाड़ते रहना था
और वे सारे एहसास मुर्दा हो जाने थे
जो अब …
मेरी नज्मों का घूँघट उठा
धीरे - धीरे मुस्कुराने लगे हैं ….
</poem>
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