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साया किसी यक़ीं का भी जिस पर न पड़ सका,
वो घर भी शरशहर-ए-दिल के मुज़ाफ़ात (पास में) ही में था ।
इलज़ाम क्या है ये भी न जाना तमसम तमाम उम्र,मुल्जिम मुल्ज़िम तमाम उम्र हवालत हवालात ही में था ।
अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ,
था रब्त (रिश्ता) जान-ओ-दिल का तो शुरूआत ही में था ।
मुझ को तो क़त्ल करके मनाता रहा है जश्न,
वो ज़िलिहाज़ (आदरणीय) शख़्स मेरी ज़ात ही में था ।
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