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मिनख / दुष्यन्त जोशी

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<poem>गळियां टेढी-मेढी
अर कित्ती सांकड़ी है
चालणो भौत दोरो है
इणां माथै

पण वै भी मिनख है
जिका खुद बणावै
पगडांडी

वै जठै खड़्या हुवै
लैण बठै सूं सरू हुवै

वां नैं लखदाद है
वां नैं घणा-घणा रंग
जिका जीतै
बार-बार जंग।</poem>
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