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लोकसेवा / हरिऔध

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<poem>
हव्यिाँ हव्वियिाँ तो काम देती हैं नहीं। 
काम आता है न उस का चाम ही।
 
वह बना है लोकसेवा के लिए।
 
साथ देना हाथ का है काम ही।
जो उसे उस का सहारा हो नहीं।
 
तो सकेगा काम पल भर चल नहीं।
 
जो न सेवा तेल बल देवे उसे।
 
तो सकेगा हाथ दीया बल नहीं।
तो पनपता न हित-हवा पा कर।
 
मिल गये प्यार-जल नहीं पलता।
 
जो न सेवा सहायता देती।
 
हाथ-पौधा न फूलता फलता।
तब छबीले हाथ क्या बनते रहे।
 
जो न सेवा कर छगूनी छवि बनी।
 
है कलस वह जगमगाती जोत यह।
 
है चँदोवा हाथ सेवा चाँदनी।
एक बरसात है अगर प्यारी।
 
दूसरा तो हरा भरा बन है।
 
जड़ हुए हाथ के लिए जग में।
 
लोक - सेवा जड़ी सजीवन है।
जो जड़ाऊ ताज बतलावें उसे।
 
तो कहें कलँगी इसे न्यारी बड़ी।
 
हाथ शमले के सजाने के लिए।
 
लोकसेवा मोतियों की है लड़ी।
राज-सुख तो न दे सवें+गे सकेंगे सुख। 
लोक-हित में रमा नहीं जो मन।
 धान्य धन्य जो हों न हाथ सेवा कर। क्या बने तो धानी धनी कमा कर धान।धन।
छोड़ कर भाव देवतापन का।
 
दैंतपन किस लिए न दिखलाता।
 
साथ है जब न लोक - सेवा बल।
 
हाथ - बल तब न क्यों बला लाता।
हाथ को अपने जलाते क्या रहे।
 
कर भली करतूत दिखलाई न जो।
 
तो लगाते छाप क्या थे दूसरे।
 
लोक - सेवा - छाप लग पाई न जो।
धान धन कमायें तो करें उपकार भी। 
यह अगर है काल तो वह लाल है।
 धान धन तजें पर लोक - सेवा तज न दें। 
हाथ का यह मैल है वह माल है।
लोक - सेवा ललक रहे करता।
 
काल जाये न काल का भी बन।
 
दे कमल क्यों न छोड़ कमला को।
 
हाथ कोमल तजे न कोमलपन।
दूसरे तोर मोर क्यों न करें।
 
क्यों नहीं हाथ तुम अलग रहते।
 
क्यों नहीं पैर प्यार - धारा में।
 
लोक - सेवा तरंग में बहते।
जब लगे तब हाथ परहित में लगे।
 
है जनमता जीव जग - हित के लिए।
 
लोक क्या, परलोक भी बन जायगा।
 
जी लगा कर लोक की सेवा किये।
हिल गया उन के हिलाने से जगत।
 
देख कर दुख दूसरों का जो हिले।
 
ले बलायें लोग सारे लोक के।
 
जाँयगे बल लोक -सेवा -बल मिले।
है भला धान धन लगे भलाई में। 
हो भले काम पर निछावर तन।
 
लोभ यश लाभ का हमें होवे।
 
लोक - हित - लालसा लुभा ले मन।
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