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|रचनाकार=रंजना जायसवाल
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}}
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<poem>
सज-सँवरकर
तस्वीर में
बैठने के लिए नहीं है स्त्री
वह छटपटाती है
और बाहर निकल आती है
मुँह ताकता रह जाता है
खाली फ्रेम
</poem>
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तस्वीर में
बैठने के लिए नहीं है स्त्री
वह छटपटाती है
और बाहर निकल आती है
मुँह ताकता रह जाता है
खाली फ्रेम
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