भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatGhazal}}
<poem>
बुतख़ाना समझते हो जिसको पूछो ना वहां वहाँ क्या हालत हैं
हम लोग वहीं से गुज़रे हैं बस शुक्र करो लौट आए हैं।।
हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहांकहाँ
सहरा में खु़शी के फूल नहीं, शहरों में ग़मों के साए हैं।।
होठों पे तबस्सुकम तबस्सुम हल्का -सा आंखों में नमी से है 'फाकिर'हम अहले-मुहब्बमत मुहब्बत पर अकसर ऐसे भी ज़माने आए हैं।।
</poem>