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|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>हर आन मुहब्बत में मिरी जाँ पे बनी है
दुनिया है कि यह खेल खड़ी देख रही है!

ग़म ही मुझे कोई है, न ही कोई ख़ुशी है
ये कैसे दो-राहे पे हयात अपनी खड़ी है?

मैं और तग़ाफ़ुल की शिकायत करूँ?तौबा!
कब आप ने पहले मिरी रूदाद सुनी है?

अफ़्सोस! सुख़न-साज़ी-ए-अर्बाब-ए-सियासत!
अब शहर-ए-मुहब्बत में जो है रीत नई है!

हर ज़ख़्म पे उम्मीद नई दिल में हो पैदा
आइन-ए-वफ़ा है तो यही शीशागरी है

तस्कीन-ए-अलम,ज़िक्र-ए-वफ़ा,वादा-ए-फ़र्दा!
कुछ भी नहीं अल्फ़ाज़ की इक जादूगरी है

दुनिया के ग़मों ने मुझे रख़्ख़ा न कहीं का
अब आह-ए-सहर है,न गम-ए-नीमशबी है

गो सच है कि उम्मीद पे कायम है ये दुनिया
जो कल था तिरा आज भी अन्दाज़ वही है

हँसती है जो दुनिया मिरी आशुफ़्ता-सरी पर
सौ होश से भारी मिरी ये बे-ख़बरी है

बेहतर है कि ख़ामोश रहें हज़रत-ए-"सरवर"!
अश’आर नये हैं न कोई बात नई है
</poem>
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