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|संग्रह=एक पर्दा जो उठा / सरवर आलम राज़ 'सरवर'
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<poem>
कोई तुम सा हो कज-अदा न कभू!
एक वादा किया वफ़ा न कभू!

ज़ख़्म-ए-दिल,ज़ख़्म-ए-जान,ज़ख़्म-ए-जिगर
लोहू ऐसा कहीं बहा न कभू!

एक दरिया-ए-दर्द-ए-बे-पायां
"इश्क़ की पाई इन्तिहा न कभू "!

कूचा कूचा गली गली देखा
आह! अपना पता मिला न कभू!

सोचता कौन इन्तिहा की जब
रास ही आई इब्तिदा न कभू?

तुझ को देखा तो यूँ हुआ महसूस
तुझ सा कोई कहीं मिला न कभू!

ऐसे खु़द आशना हुए हैं हम
याद आया हमें ख़ुदा न कभू!

हो न हो उस गली से आई है
ऐसी गुल-पाश थी सबा न कभू!

ज़िन्दगी की हज़ार राहों में
क्यों मिला कोई रास्ता न कभू?

जैसा आजिज़ है आप का "सरवर"
ऐसा कोई हो बे-नवा न कभू!
</poem>
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