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|रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव
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<poem>
आवाज़ आ रही खटर पटर,
पिस रहे आम सिलबट्टे पर|

अमियों के टुकड़े टुकड़े कर ,
मां ने सिल के ऊपर डाले|
धनियां मिरची भी कूद पड़े,
इस घोर युद्ध में, मतवाले|
फिर हरे पुदेने के पत्ते,
भी मां ने रण में झोंक दिये|
फिर बट्टे से सबको कुचला,
सीने में खंजर भोंक दिये|
मस्ती में चटनी पीस रही,
बैठी मां सन के फट्टे पर|
पिस रहे आम सिलबट्टे पर|

आमों की चटनी वैसे ही ,
तो लोक लुभावन होती है|
दादा दादी बाबूजी को,
गंगा सी पावन दिखती है|
भाभी को यदि कहीं थोड़ी,
अमियों की चटनी मिल जाती|
तो चार रोटियों के बदले,
वह आठ रोटियां खा जाती|
भैया तो लगा लगा चटनी,
खाते रहते हैं भुट्टे पर|
पिस रहे आम सिलबट्टे पर|

चटनी की चाहत में एक दिन,,
सब छीना झपटी कर बैठे|
भैया भाभी दादा दादी,
चटनी पाने को लड़ बैठे|
छोटी दीदी ने छीन लिया,
भैया से चटनी का डोंगा,
इस खींचातानी में डोंगा,
धरती पर गिरा हुआ ओंधा|
चटनी दीदी पर उछल गई,
दिख रहे निशान दुपट्टे पर|
पिस रहे आम सिलबट्टे पर|
</poem>
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