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हाँ मेरा हृदयमन
आकर्षित है
उस दृष्टि के लिए,
जो उत्पन्न करती है
मेरे हृदय मन में
एक लुभावना कम्पन,
फर्क
इन्द्र और गौतम की दृष्टि का
भिज्ञ वाकिफ हूँ मैं श्राप शाप के दंश से
पाषाण से स्त्री बनने
के की पीड़ा से,
लहू-लुहान हुए अस्तित्व को
सतर करने की प्रक्रिया से,
उसे थामती हूँ मैं
पर ये किसी हठी बालक सामांगता है चंद्रखिलोनाचंद्रखिलौना,
क्यों नहीं मानता
कि आज किसी श्राप शाप की कामना
नहीं है मुझे
संवेदनाओ कामनाओं के पैराहन के
कोने को
गांठ लगा ली है संस्कारों समझदारी की जगा लिया है अपनी चेतना को हाँ ये तय है
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी!
</poem>
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