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Kavita Kosh से
पर्वत की
ऊँचाई पर पल भर को ठहर गई
बेच गई बनजारिन धूप
माँझी के गीत क्या रुके
चपुआ ने रोक दिए पाँव
तट पर
ताबीज़-सी बँधी पानी की पालकी
ललाम
घाटी से घण्टियाँ चलीं
मटमैले गाँवों की ओर
लिपट गई प्राण-गाँसिनी
जल-भीनी बंसी की डोर
महराबों पर चहक भरी सुधियाँ
गुमनाम
चरण धरे अँधियारे ने
टूट रही पगडण्डी दूर
नभ दृग में मोती झलका
सिमट गया सन्ध्या सिन्दूर
अभिव्यक्ति पर लगा अनबूझी रात का
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