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Kavita Kosh से
मैं तो धरती के प्राँगण में खुलकर खेलूँगा
चौकड़ी भरूँगा हिरनी -सा वन-प्रान्तर में
नापूँगा पहाड़ों की दुर्गम चोटियाँ
अँधेरे को नाथकर चाँद से बातें करूँगा