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10:48, 28 अगस्त 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=पीयूष दईया
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
वह क्या है जिसे छिपा नहीं सके
अब प्रकट है जो
--एक लाश--
वियोग-उपहार
जिसे हिन्दू गलने से रोक लेते हैं
ले आते राख में
क्या इति का नक़ाब है
अपनी ही पदचापों से बने
रास्ते पर
कौन-सा शब्द है जो जीने में आ सके
लाश--
</poem>