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<poem>
वे जो घरों को छोड़कर
दीवारों को फलांग कर
जातियों और खाप को अंगूठा दिखाकर
एक दिन भाग खडे होते हैं
वे शायद अपने सबसे सुंदर और जोखिम भरे दिनों में
छुपते-छुपाते कर रहे होते हैं
अपनी ज़िंदगी का सबसे गहरा प्रेम।
वे बसों, ट्रेनों होटलों और शहरों को अदलते-बदलते
इस उम्मीद के भरोसे दौड़ते चले जाते हैं
कि एक दिन दुनिया उन्हें समझेगी, उनके प्रेम को स्वीकार कर लेगी।
ये हमारे लैला-मजनूं, ये हमारे शीरीं फरहाद, ये हमारे रोमियो जूलियट
नहीं जानते कि वे सिर्फ प्रेम नहीं कर रहे
एक सहमी हुई दुनिया को उसकी दीवारों का खोखलापन भी दिखा रहे होते हैं
वे नहीं समझते कि उन दो लोगों का प्रेम
कैसे उस समाज के लिए ख़तरा है
जिसकी बुनियाद में प्रेम नहीं घृणा है, बराबरी नहीं दबदबा है,
साझा नहीं बंटवारा है।
वे तो बस कर रहे होते हें प्रेम
जिसे अपने ही सड़ांध से बजबजाती और दरकती एक दुनिया डरी-डरी देखती है
और जल्द से जल्द इसे मिटा देना चाहती है।
</poem>
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