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Kavita Kosh से
पांचाली पान खिलायेगी
आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा ! आनंद-चमत्कृत जग होगा
सब लोग तुझे पहचानेंगे, असली स्वरूप में जानेंगे
खोयी मणि को जब पायेगी,
कुन्ती फूली न समायेगी
रण अनायास रुक जायेगा, कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
संसार बड़े सुख में होगा, कोई न कहीं दुःख में होगा
सब गीत खुशी के गायेंगे,
तेरा सौभाग्य मनाएंगे
कुरुराज्य समर्पण करता हूँ, साम्राज्य समर्पण करता हूँ
यश मुकुट मान सिंहासन ले, बस एक भीख मुझको दे दे
कौरव को तज रण रोक सखे,
भू का हर भावी शोक सखे
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ, क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा बड़ी यह माया है, जो कुछ आपने बताया है
दिनमणि से सुनकर वही कथा
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा
मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ, उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल, निज तन से जो शिशु को निकाल
धाराओं में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?
सेवती मास दस तक जिसको, पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है, अन्तर का रुधिर पिलाती है
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
नागिन होगी वह नारि नहीं
हे कृष्ण आप चुप ही रहिये, इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
सुनना न चाहते तनिक श्रवण, जिस माँ ने मेरा किया जनन
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी
पत्थर समान उसका हिय था, सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
गोदी में आग लगा कर के, मेरा कुल - वंश छिपा कर के
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया
माँ का पय भी न पीया मैंने, उलटे अभिशाप लिया मैंने
वह तो यशस्विनी बनी रही, सबकी भौ मुझ पर तनी रही
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता
मैं जाती गोत्र से हीन, दीन, राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था, कह 'शूद्र' पुकारा था
पत्थर की छाती पती नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
मैं सूत-वंश में पलता था, अपमान अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा, माँ की ममता पर हुई वृथा
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी
पा पाँच तनय फूली फूली, दिन - रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव में चूर रही, मुझ पतित पुत्र से दूर रही
क्या हुआ की अब अकुलाती है
किस कारण मुझे बुलाती है
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