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अजनबी दोस्त, बहुत देर में रोया है तू!चले आइएअपनी आवाज़ ज़बानों की सरहद के सन्नाटे में बैठे बैठेउस पार और आँखों से उभर आई जहाँ बस ख़मोशी का दरिया मचलता है सय्याल-ए-फ़ुगाँअपने में तन्हा अपनी मजबूरियाँ लाचारियाँ बिखराती हुईरेग-ए-हस्ती के निज़ामात से झुँझलाती हुईख़ुद अपने अदम ही में ज़िंदा
ऐ उदासी ज़बानों की फ़ज़ाओं सरहद के परिंदे ये बता अपने अन्फ़ास के तारीक बयाबानों मेंऔर तू क्या है ज़मानों की सियाही के सिवा,और तू क्या है सराबों की गवाही के सिवा,रात में सर्द सितारों की जमाही के सिवा, तिरे चेहरे की ज़मीं पर जो नमी है अब भी दिल की सब बस्तियाँ उस में ही ठिठुर जाती हैं,पार अपने सहमे से किनारों पे थपेड़े खा कर अब भी दुनिया के सिसकने किसी की सदा आती है, अजनबी दोस्त, ऐ मानूस मुक़द्दर के मकीं अपनी आवाज़ के सन्नाटे में बैठे बैठे ये भी क्या कम आमद नहीं है कि तू अपने जवाँ अश्कों से अपने हालात के दामन को भिगो सकता हैबस इक जाल पैहम हदों का उस जहाँ में कि जहाँ सूख गया है सब कुछ ये भी क्या कम है कि तू आज भी रो सकता मगर कोई सरहद नहीं है !
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