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|संग्रह=म्हारै पांती रा सुपना / राजू सारसर ‘राज’
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<poem>
क्यूं लिखणौं चावै
थूं म्हारी आत्मकथा
इणनै फंफैड़ दी
बगत रा फंफैड़ां
महंगाई अर मरजादाहीणैं
मिणखपणै री रूळ-पटी रै
धक्कै चढ’र
डांडी भूल’र
डाफाचूक होयगी
म्हारी आत्मकथा
आंटा-टूंटा
लीक-लिकोळिया जूण रा
जका म्हूं
अबखा-सबखा जी लिया
जै अैक ई
लीकटी सीधी होंवती
तो स्यात
म्हारी कोई दिसा होंवती
दिसा बायरो मिणख पण
कद कठै’ई जावै
भिचभैड्यां खाय’र
पाच्छौ सागी ठौड़ ई आ पूगै।
</poem>
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