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Kavita Kosh से
कोल्हू के बैल की तरह
घूमते रहे हैं जो एक ही जगह
खुर वही पुजे हैं
तोड़ा है जिसने भी
धरती का बाँझपन
नाप गए बिना नापी
भीतर तक भरे नहीं
छूते ही रहे सदा ऊपरी सतह
घूमते रहे हैं जो एक ही जगह
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