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मुक्ति / प्रवीण काश्‍यप

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<poem>
प्रेम आ निसाँ
मिज्झर भेल एक दोसरा में
एकटा नव वेदनाक संचार भेल
रहि-रहि कऽ हृदय क्षेत्र सँ
हूक उठऽ लागल
ताहि पर प्रेमिका संग नहि!
कामातुरक विरह वेदना
हे आर्य की उपाय?
चैतन्यक अभिव्‍यक्ति
मात्र बुद्धि मने टा नहि,
चैतन्य सँ अभिरंजित संपूर्ण जड़-शरीर
जड़-चेतन एकहि में मिझरा गेल
चित्-अचितकेर स्वभाव सँ फराक
दिव्योर्मि मात्र प्रेम-वेदना।

ने क्रोध, ने मोह, ने माया, ने लोभ
ई कषाय तऽ मात्र शरीरिक बंधन थिक;
स्वतंत्र आत्मा पर कोन बंधन?
बंध तोड़बा लेल सदैव तत्पर आत्मा
आस्रवक धार केँ मोरब, संघर्ष करब
ओकर प्रयोजन
कखनहुँ-कखनहुँ सत्केर संचार होइत अछि,
मुदा बड्ड क्षीण-बड्ड थोड़
कहिया धरि हम एहि मचकी सँ उतरब?

हे प्रजापति, हे ब्रह्म, हे प्रेमिका
संपूर्ण वेदना, संपूर्ण बंध, संपूर्ण पराधीनताक
हमर मुक्ति, निर्वाणक लेल
अनन्त आनन्द, आनन्त उर्जा, अनन्त प्रेमक
हे स्वाभाविक अनंत दिव्योर्मि
कौखन धरि अहाँ अपना में
हमरा स्थान देब?
कौखन धरि हमर मुक्ति भऽ सकत?
</poem>
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