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जीवन / प्रवीण काश्‍यप

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<poem>
जीवन तों जीयब सीख लयलें
कंक्रीटक जंगल में!
घास-पात, खर-पतार,
प्राकृतिक वस्तुजात
नहि भेटैत छौ
तें की!

तार-तूर डिब्बा-डिब्बी
मनुष्यक फेकल अवदान सँ
घर बनाया सिखलें
कंक्रीटक जंगल में!

नेना-भुटका सभ लेल
नहि बचते तोहर अनुपम सौन्दर्य!
गाय-बेख, पशु-पक्षी, कीड़ा-फतिंगा,
सभ नष्ट भऽ जएतै समूल!
नहि!
सभ टा रहतै प्रदर्श बनि कऽ
अमेरिकाक कोनो प्रयोगशाला
संग्रहालय मे!
संधारकक (कंप्यूटरक) ‘सी’,ओरेकल आदिक
कोनो प्रोग्राम बने कऽ
अपन स्वर्णिम अतित में
लौटबा लेल व्यग्र!

हे प्रकृति! तोरा मात्र भौतिक वस्तु
बनौने जा रहल छौं मनुष्य
तोहर विस्तार कें सूक्ष्म-सूक्ष्मतर
कएने जा रहल छौ,
प्रदर्श प्रति बना कऽ।

तों रहबें सर्वदा, जीबें कनैत-कनैत!
आ हम तोरा देखबौ, हँसबौ, हँसिते रहबौ,
बताह बनि जएबा धरि
प्रदर्श वस्तु मात्र बनि जएबा धरि
अमेररिकाक कोनो प्रयोगशाला मे!
</poem>
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