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प्राणमयी / प्रवीण काश्‍यप

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<poem>
हमरा हृदय मे आब रहि-रहि कऽ
होइत अछि पीड़ा
छाती सँ पीठ धरि
कोनो बरछी भोकबाक
दूःसाध्य संपीड़न कें
खाट पर औनाइत, ओंघराइत, कछमछ करैत
छाती पर मुक्का मारि-मारि कऽ
सहबाक अनवरत करैत छी उपक्रम!

संपूर्ण देह एक अकथनीय डर सँ
हारल, झमारल भऽ जाइत अछि
श्वेदक सन्निपात सँ ओछाओन
भऽ जाइत अछि गुमसाइन।
केओ ने अछि हमर पीड़ा बुझनिहारि?
आन कें कोना कही पीड़ाक कारण?
जे कऽ सकैत छथि हमर पीड़ा मुक्ति
अपन माँसल दबाब सँ
से करोट फेर कऽ देखबैत छथि
अपन कठोर सपाट पीठ!
हम पीड़ा निवृति लेल
खेखनिया करैेत छी हुनक पाछाँ
मुदा हुनका बुझा परैत छन्हि
ई सभ नाटक-तमासा!

बध लागत सन मन निरूपाय!
मुदा हुनको तऽ छन्हि शरीर
आ शरीरक ज्वाला
हुनको तऽ छन्हि हृदय
आ हृदयक टीस
तें करहि परैत छन्हि स्पर्श।

मुदा ता धरि भऽ जाइत अछि भोर
लग-पास, टोल-परोस
भऽ जाइत अछि मनुखाह!
मुदा स्पर्श तऽ रहिते अछि दैवीय औषधि!
क्षणिक आलिंगन, एकमात्र चुंबन
होइत अछि हमर संजीवनी
हुनक संप्राप्ति अछि प्राणमयी।
</poem>
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