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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
नहीं,
मैं नहीं एकान्त निर्मात्री,
इस सद्य-प्रस्फुट जीवन की,
रचना मेरी, आधान तुम्हारा
सँजो कर गढ़ दिया मैंने नया रूप .
प्रेय था!
*
पौरुष का माधुर्य छलक उठा जब
नयनों में वात्सल्य बन,
जैसे चाँदनी में नहाई बिरछ की डाल,
स्निग्ध कान्ति से दीप्त तुम्हारा मुख!
मुग्ध हो गई मैं .
*
कृतज्ञ दृष्टि कह गई-
'जहाँ मैं अगुन-अरूप-अव्यक्त रहा,
तुमने ग्रहण किया.
प्रतिष्ठित कर दिया मुझे!
अपने से पार
पुनर्जीवन पा गया मैं,
तुम्हारे रचे प्रतिरूप में! '
*
सृष्टि का श्रेय आँचल में समाये
मुदित परितृप्ति का प्रसाद,
मिल गया मुझे,
और देहानुभूतियों से परे,
मन की विदेह-व्याप्ति!
*
</poem>
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|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
नहीं,
मैं नहीं एकान्त निर्मात्री,
इस सद्य-प्रस्फुट जीवन की,
रचना मेरी, आधान तुम्हारा
सँजो कर गढ़ दिया मैंने नया रूप .
प्रेय था!
*
पौरुष का माधुर्य छलक उठा जब
नयनों में वात्सल्य बन,
जैसे चाँदनी में नहाई बिरछ की डाल,
स्निग्ध कान्ति से दीप्त तुम्हारा मुख!
मुग्ध हो गई मैं .
*
कृतज्ञ दृष्टि कह गई-
'जहाँ मैं अगुन-अरूप-अव्यक्त रहा,
तुमने ग्रहण किया.
प्रतिष्ठित कर दिया मुझे!
अपने से पार
पुनर्जीवन पा गया मैं,
तुम्हारे रचे प्रतिरूप में! '
*
सृष्टि का श्रेय आँचल में समाये
मुदित परितृप्ति का प्रसाद,
मिल गया मुझे,
और देहानुभूतियों से परे,
मन की विदेह-व्याप्ति!
*
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