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कोइली / नरेश कुमार विकल

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<poem>
युग-युग सँ चलि आबि रहल छौ,
बाजब मिसरिक घोल सन।
हमरा आब लगइए कोइली
बाजब तोहर ओल सन।

तारे स्वरक प्रेम पाबिकऽ
बनल ई दुनिया कामी।
लोक-लाज कर्त्तव्य छोड़िकऽ
प्रेमी बनि गेल नामी।

आम पड़ाएल डारि सुखायल
पुष्पी घऽरक झोल सन।
हमरा आब लगइए कोइली
बाजब तोहर ओल सन।

कतेक राज-दरबार भूपकें-
अपन बोल सँ मोहलें।
महल टूटि मरइया भऽ गेल
बाट आन घर जोहलें।

सभ दिन सुख में संग दैत छें
दुःख मे खाली डोल सन।
हमरा आब लगइए कोइली
बाजब तोहर ओल सन।

दुतिया केर तों चान बनल
आबै छें कोइली आंगन।
दऽस मास हम विरहिणी बनिकऽ
कानी बैसलि आंगन।

फुटली आँखि सोहाइ छै नै तों
हमरा बाघक खोल सन।
हमरा आब लगइए कोइली
बाजब तोहर ओल सन।

तोरे रंगक रंग देखिकऽ
कृष्ण कहाबथि कारी।
गे जरलाही! मोन करैए
ठोरो तोहर जारी।

आँखि देखिने केहन लगै छौ
साँपक आँखिक गोल सन।
हमरा आब लगइए कोइली
बाजब तोहर ओल सन।

भूखल पेट मे नै सोहाइत छै-
ककरो प्रेमक बात मय।
साग तोड़ि कऽ गुजर करै छथि
राधा कमला कात गय।

पी-पी राग बिसरि कऽ गावें
ललका आगि अंगोर सन।
हमरा आब लगइए कोइली
बाजब तोहर ओल सन।

गाऽ कोइली अनुराग राग आ‘-
वीरक कोनो तान गय।
तखने देबौ दूध-भात आ-
भेंटतौ तोरा मखान गय।

आइ भोर मे गावें कोइली
रणक डंका ढोल सन।
हमरा आब लगइए कोइली
बाजब तोहर ओल सन।
</poem>
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