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वसन्त गीत / नरेश कुमार विकल

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<poem>
ससरल गगन सँ मगन भेल चन्दा
पसरल नभ मे विहान यौ।
फूलक पात पर घात लगौने
भमरा करय मधुपान यौ।

सींथ सम्हारल मूगां आ मोती सँ
पाल बनौने साड़ी आ धोती सँ
खूँट खोंसि आँचरक ग्रामीणबाला
करैछ नर्त्तन मन गान यौ।

सिहकि बसात चलल चहुँ दिस
हिलमिल गावय गहूमक शीश
विहुँसय मन सुमन देखि, धरतीक सोहाग
अग जग मे जागल परान यौ।

चम-चम चमकै बिन्दिया लगौने
कजरा लगौने आ गजरा सजौने
बाँटैछ कुंकुम घुमि-घुमि घर मे
पसरल अधर मुस्कान यौ।
</poem>
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