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प्रिये ! आया ग्रीष्म खरतर !
 
 
सविभ्रमसस्मित नयन बंकिम मनोहर जब चलातीं<br>
प्रिय कटाक्षों से विलासिनी रूप प्रतिमा गढ़ जगातीं<br>
प्रवासी उर में मदन का नवल संदीपन जगा कर<br>
रात शशि के चारु भूषण से हृदय जैसे भूला कर<br><br>
 
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!<br><br>
 
तीव्र जलती है तृषा अब भीम विक्रम और उद्यम<br>
भूल अपना, श्वास लेता बार बार विश्राम शमदम<br>
खोल मुख निज जीभ लटका अग्रकेसरचलित केशरि<br>
पास के गज भी न उठ कर मारता है अब मृगेश्वर<br><br>
 
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!<br><br>
 
किरण दग्ध, विशुष्क अपने कण्ठ से अब शीत सीकर<br>
ग्रहण करने, तीव्र वर्धित तृषा पीड़ित आर्त्त कातर<br>
वे जलार्थी दीर्घगज भी केसरी का त्याग कर डर<br>
घूमते हैं पास उसके, अग्नि सी बरसी हहर कर<br><br>
 
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!<br><br>
 
क्लांत तन मन रे कलापी तीक्ष्ण ज्वाला मे झुलसता<br>
बर्ह में धरशीश बैठे सर्प से कुछ न कहता, <br>
भद्रमोथा सहित कर्म शुष्क-सर को दीर्घ अपने<br>
पोतृमण्डल से खनन कर भूमि के भीतर दुबकने<br>
वराहों के यूथ रत हैं, सूर्य्य-ज्वाला में सुलग कर<br><br>
 
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!<br><br>
 
दग्ध भोगी तृषित बैठे छत्रसे फैला विकल फन<br>
निकल सर से कील भीगे भेक फनतल स्थित अयमन,<br>
निकाले सम्पूर्ण जाल मृणाल करके मीन व्याकुल,<br>
भीत द्रुत सारस हुए, गज परस्पर घर्षण करें चल,<br>
एक हलचल ने किया पंकिल सकल सर हो तृषातुर,<br><br>
 
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर! <br><br>
 
रवि प्रभा से लुप्त शिर- मणि- प्रभा जिसकी फणिधर<br>
लोल जिहव, अधिर मारुत पीरहा, आलीढ़<br>
सूर्य्य ताप तपा हुआ विष अग्नि झुलसा आर्त्त कातर<br>
त॓षाकुल मण्डूक कुल को मारता है अब न विषधर<br><br>
 
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!<br><br>
 
प्यास से आकुल फुलाये वक्त्र नथुने उठा कर मुख<br>
रक्त जिह्व सफेन चंचल गिरि गुहा से निकल उन्मुख<br>
ढ़ूंढने जल चल पड़ा महिषीसमूह अधिर होकर<br>
धूलि उड़ती है खुरों के घात से रूँद ऊष्ण सत्वर<br><br>
 
प्रिये आया ग्रीष्म खरतर!