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वे दो दाँत-तनिक बड़े<br>जुड़वाँ सहोदरों-से <br>अन्दर-नहीं, सुन्दर<br>पूर्णचन्द्र-से सम्पूर्ण<br>होंठों के बादली कपाट <br>जिन्हें हमेशा मूँदना चाहते<br>और कभी पूरा नहीं मूँद पाते <br>हास्य को देते उज्ज्वल आभा<br>मुस्कान को देते गुलाबी लज्जा<br>लज्जा को देते अभिनव सौन्दर्य<br>वह कालिदास की शिखरिदशना श्यामा नहीं-<br>अलकापुरीवासिनी<br>लेकिन हाँ, साँवली गाढ़ी<br>गली पिपलानी कटरा की मंजू श्रीवास्तव<br>हेड क्लर्क वाई. एन. श्रीवास्तव की मँझली कन्या<br>जिसकी एक मात्र पहचान-नहीं, मैट्रिकुलेशन का प्रमाणपत्र-नहीं <br>न होमसाइंस का डिप्लोमा<br>न सीना-पिरोना, न काढ़ना-उकेरना<br>न तो जिसका गाना ग़ज़लें, पढ़ना उपन्यास-<br>वह सब कुछ नहीं <br>बस, वे दो दाँत-तनिक बड़े<br>सदैव दुनिया को निहारते एक उजली उत्सुकता से <br>दृष्टि-वृष्टियों से धुँधले ससंकोच<br>दृष्टियाँ जो हों दुष्ट तो भी पास पहुँचकर<br>कौतुल में निर्मल हो आती हैं<br><br>
वे दो दाँत-तनिक बड़े <br>डेंटिस्ट की नहीं, एक चिन्ता की रेतियों से रेते जाते हैं <br>एकान्त में खुद को आईने में निरखते हैं चोर नज़रों से <br>विचारते हैं कि वे एक साँवले चेहरे पर जड़े हैं<br>कि छुटकी बहन के ब्याह के रास्ते में खड़े हैं<br>वे काँटे हैं गोखुरू हैं, कीलें हैं <br>वे चाहते हैं दूध बनकर बह जायें <br>शिशुओं की कण्ठनलिकाओं में <br>वे चाहते हैं पिघल जायें,<br>रात छत पर सोये, तारों के चुम्बनों में <br><br>
रात के डुबाँव जल में डूबे हुए <br>वे दो दाँत-तनिक बड़े-दो बाँहों की तरह बढ़े हुए <br>धरती की तरह प्रेम से और पीड़ा से <br>फटती छातीवाले-<br>जिस दृढ़-दन्त वराहावतार की प्रतीक्षा में हैं<br>वह कब आयेगा उबारनहार<br>गली पिपलानी कटरा के मकान नम्बर इकहत्तर में <br>शहर के बोर्डों-होर्डिंगों पोस्टरों-विज्ञापनों से पटे<br>भूलभुलैया पथों<br>और व्यस्त चौराहों और सौन्दर्य के चालू मानदण्डों को<br>लाँघता <br>आयेगा न ?<br>कभी तो !<br>