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अहोमैं मील का पत्थर हूँज़मीन में आधा गड़ाआधा ज़िन्दा, मनोरथ-प्रिया!आधा मुर्दाचल नहीं तुम ग्रीष्म-ताप से तप्तसकताकाम जो मुझे जलाता हैसिर्फ़ देख सकता हूँवही है किए तुम्हें संतप्त।राहगीरों को आते-जाते ।
आश्रम में है शान्तिमैं कैसे चलूँकिन्तु मेरा मन है आक्रान्तसड़क भटक जाएयहाँ के वृक्ष तुम्हारे भ्रातमैं कैसे दौड़ूँलता-बेलों की सगी बहनाचौराहा दिशाएँ भूल जाएतभी हो नव मल्लिका समानमेरी किस्म्त में गति कहाँ!मधुर यह रूप, मदिर ये नयनमैं दर निगोड़ा हूँदे गया मुझे नेत्र-निर्वाण।बस एक जगहनिराश्रित ठूँठे गड़े रहनामेरी नियति है ।
यही समय है, यही घड़ी हैगाढ़ रूप आलिंगन मील का प्रिय!पत्थर होनाकमलमुझे बहुत भारी पड़ालोग सरपट चलते चले गएचढ़ गए ऊँची-सुवासित सुखद वायुऊँची मंजिलेंमालिनी का तट, यह लताकुंजमेरे एक इशारे परकितना अभीप्सु यह प्रांतलेकिन ठहर गया समयअभीप्सित है इसका एकांतजैसे मर गया मेरे लिएसुरक्षित यहाँ गहन मधुपानमेरे मुर्दा गड़े पैरों मेंजो कितनी तृषा बढ़ाता हैमिलन का राग जगाता है।मेरी कोई मंजिल नहीं ।
हे, करभोरु! यही समय हैमैं मील का पत्थरयही घड़ी है, छोड़ो भयऐसे नहीं बनाकहो, कमलिनी के पत्ते सेक्रूर बारूदों ने तोड़ापंखा झलकर ठंडी-ठंडी हवा करूँअलग कर दिया मुझेया कहो, तुम्हारे कमल सरिसमेरी हमज़मीन सेइन लालबेरहम हथौड़े पड़े तन-लाल चरणों कोअपनी गोद में रख करमन परजिस प्रकार सुख मिले दबाऊँमाथे पर इबारत डालपृथु नितम्ब तक धीरेमुझे गाड़ दिया गया सरे-धीरे।आम ।
आज चन्द्र शीतल किरणों सेमुझे हर मौसम ने पथरायाअग्नि-बाण-सा गिरा रहा हैठंडी, गर्मी, बरसात सब नेकामदेव फूलों को देखोदिल बैठ गयावज्रदिमाग सुन्न हो गयाख़ून जम गयामैं मील-बाणमील होता गयासारे दुख-सा बना रहा हैखींच रहा है ज्यों कानों तकफेंक दर्द सहता रहा है अनल निरंतरछोड़ तुम्हारे चरण प्रिये!मगर मेरे पथराए सिर परअब कहीं नहीं है शरण प्रिये!किसी ने हाथ न रखा ।
हे पुष्पप्रिया! तुम अनाघ्रातनख-चिह्न रहित किसलय-जैसीना बींधे गए रत्न सम होमैं देख रहा मील का पत्थर हूँ निर्निमेषतुम ललित पदों की रचना होरूप की राशि अनुपमा होभौंहें ऊपर उठी हुई जहाँ थूक भी देते हैंऔर मेरा अनुराग प्रकट मेंछलक रहा हर्षित कपोल पर। दो शिरीष के पुष्प सुष्ठमकरंद सहित डंठल वालेदोनों कानों में कर्णफूललोग-सेसजे लटकते गालों तकअधरोष्ठ रस भरे बिम्बा फलखस का लेप उरोजों बाग मुझ परकमलपत्र आवरण वक्ष परजहाँ उठा देते हैं टाँगकमलनाल का कंगन कुत्ते तक मेरे ऊपरखींचता बार-बार है दृष्टिवक्ष का यह कर्षक विस्तारसहे कैसे यह वल्कल भार। डाली-सी भुजाएँ हैं कोमलजैसे है हथेली रक्त कमलनयनों में हरिणी-सी चितवनअंगों में फूलों का यौवनगह्वर त्रिवली में तिरता हैयह कैसा दृष्टि-विहारकुचों के बीच सुकोमलशरच्चंद्र-सा कमलनाल का हार। आम्रवृक्ष वहीं मेरे इशारे पर चढ़ती हैमाधवी लता संगिनि होकरअपनी राह तय करती निगाहेंगिरती है रत्नाकर में ज्योंमहानदी सर्वस्व लुटाकरवैसे प्रिय! अब भुजा खोलकर लो धारण वपुमान प्रखरप्रिय मुझे पिलाओ अधरामृतहो जाऊँ अमर पीकर छककर। जैसे मृगशावक को हे, प्रिय!दोने में कमलिनी-पातों केनिज कर से नीर पिलाती होवैसे अधरोष्ठ पत्र करकेसुरतोत्सव का ले सुरा-पात्रमधु-दान करो अंतर्मन से। मैं बिंधा काम के बाणों सेतुम समझ रही अन्यथा अभीजब झुकी सुराही अधरों परफिर ना-नकार क्या बात रही! हो गया आज जब प्रकट प्रेमजब प्रणय-प्रार्थना है समानहट गया बीच का पट साराना-नुकर का ये कैसा है स्वाँग! राजभवन का चहल-पहलहै कई वल्लभावों से शोभितकिन्तु प्रिये! यह पृथ्वीऔर प्राणप्रिये! तुम ही दोनोंकुल की मेरी प्रतिष्ठा हो। छोड़ो भय, प्रिय! छोड़ो भयगुरु जन दोष नहीं मानेंगेपाया जब अनुराग परस्परसम हृदयज्ञ का सम आकर्षणगन्धर्व विवाह कर लियाबहुत-सी कन्याओं नेफिर सहमति दे दी मात-पिता नेबंधु-बांधव, गुरुजन ने। हे, कामसुधा! इसलिएनहीं अब छोड़ सकूँगाछककर क्षाम हुए बिननहीं सुधे! अब नहीं, नहींयह देह बहुत आकुल हैजैसे भ्रमर पिया करते हैंइठलाते सुमनों का रसमदमाते हैं अधर तुम्हारेदया बहुत आती है इन परपीना है अब कुसुम सरीखेइन अक्षत अधरों का मदपी-पीकर मदमत्त भ्रमर-साभीतर तक धँस जाना है।सलाम करती हैं।
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