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|रचनाकार=संतलाल करुण
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|संग्रह=अतलस्पर्श / संतलाल करुण
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<poem>जब मैंने विगत 19 जनवरी 2013 को अयोध्या में सरयू तट-पर माँ की चिता को अग्नि दी और सूखे आम के काठ में लगभग सूख चुकी माँ की ठठरी दो-ढाई घंटे मेरी आँखों के सामने लपटों में खोती-विलीन होती रही, तो बालपन से अब तक का सचल जीवन-चित्र मेरी स्मृति-पटल से गुजर गया। जब अप्रैल 1992 में पिता की असामयिक मृत्यु से परिवार लड़खड़ा गया, अधटूटी-सी माँ तब भी पूरे परिवार पर सजग निगरानी रखती रहीं; किन्तु दिसंबर 1996 में दूसरी वज्रपाती असामयिक मृत्यु लेकर आई विकट पारिवारिक विसंगति ने उन्हें तोड़कर रख दिया और वे मानसिक क्षमता ही खो बैठीं। तब से लेकर अब तक का लगभग 16 वर्षों का उनका जीवन-काल अत्यंत पीड़ा एवं यातनाग्रस्त रहा। पर बीच-बीच में जब भी वे सामान्य मानसिक हालत में लौटतीं तो फिर वही नेह-नातों की ममता-भरी गठरी उठाने-सँभालने का यत्न करती रहतीं। सेना में अक्षम सैनिक को निकाल दिया जाता है, किन्तु माँ के डेरे में यह नियम नहीं चलता। न तो वह अपने डेरे से किसी को निष्कासित करती है और न ही स्वयं कभी दायित्व से मुँह मोड़ती है। वे पूरी तरह अंग-भंग होकर भी बलिपंथी सैनिक की तरह मोर्चा छोड़ने को तैयार न थीं।
इधर जनवरी के लगते ही उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा और १० दिनों बाद जब वे घर लौटीं तो लगा कि माँ ने एक बार फिर मौत को मात दे दी है। पर इस बार का मेरा भरोसा खरा न उतरा और मौत के आगे उन्हें आँख मूँदना पड़ा। माँ की ममता, त्याग, यातना, जिजीविषा और अनवरत संघर्ष जीवन की एक दीर्घ महाकाव्यात्मक पीड़ा लिए हुए है। यहाँ तो बस कुछ इने-गिने शब्द मेरे मानस-पटल की पटरी से बरबस उतरकर माँ की स्मृति में इन छंदों में आ गए हैं –
'''निपट अकेली जलती माँ'''
सरयू की मंथर धारा-सी यादों में अब तिरती माँ
दाह-समय, पवन का झोंका धू-धू करके जलती माँ।
गोबर-कंडा, खुरपी-हँसियाँ, खेत-पात, घर-बार, मुहारा
झाड़ू, चलनी-सूप छोड़ अब निपट अकेली जलती माँ।
बहुत जली गीली लकड़ी, सुलग-सुलगकर जीवन भर
आम की सूखी लकड़ी पे आज चैन से जलती माँ।
काले विषधर फन फैला यदि करते गर्दन ऊँची
डैनों पर ज्यों पर फैलाती आँसू-भरी हुँकरती माँ।
तन छीझा, मन टुकड़ा-टुकड़ा, बुद्धि पे भ्रम का डेरा
फिर भी आँचल में ममता की छाँव सँजोकर रखती माँ।
आसमान से बातें करता जीवन-रथ कितना न्यारा
बचपन की खड़खड़िया थामे जैसे सँग-सँग चलती माँ।
हाड़-मांस, तन गला बर्फ-सा ठठरी-ठठरी चिता चढ़ी
आग में तप, जल-तरंग चढ़, चलती बेर लहरती माँ।
दूध का मोल सबसे ऊँचा, वही बसाता घर-संसार
उसी दूध का स्नेह निभाती, गिरि से सागर बहती माँ।
</poem>
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इधर जनवरी के लगते ही उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा और १० दिनों बाद जब वे घर लौटीं तो लगा कि माँ ने एक बार फिर मौत को मात दे दी है। पर इस बार का मेरा भरोसा खरा न उतरा और मौत के आगे उन्हें आँख मूँदना पड़ा। माँ की ममता, त्याग, यातना, जिजीविषा और अनवरत संघर्ष जीवन की एक दीर्घ महाकाव्यात्मक पीड़ा लिए हुए है। यहाँ तो बस कुछ इने-गिने शब्द मेरे मानस-पटल की पटरी से बरबस उतरकर माँ की स्मृति में इन छंदों में आ गए हैं –
'''निपट अकेली जलती माँ'''
सरयू की मंथर धारा-सी यादों में अब तिरती माँ
दाह-समय, पवन का झोंका धू-धू करके जलती माँ।
गोबर-कंडा, खुरपी-हँसियाँ, खेत-पात, घर-बार, मुहारा
झाड़ू, चलनी-सूप छोड़ अब निपट अकेली जलती माँ।
बहुत जली गीली लकड़ी, सुलग-सुलगकर जीवन भर
आम की सूखी लकड़ी पे आज चैन से जलती माँ।
काले विषधर फन फैला यदि करते गर्दन ऊँची
डैनों पर ज्यों पर फैलाती आँसू-भरी हुँकरती माँ।
तन छीझा, मन टुकड़ा-टुकड़ा, बुद्धि पे भ्रम का डेरा
फिर भी आँचल में ममता की छाँव सँजोकर रखती माँ।
आसमान से बातें करता जीवन-रथ कितना न्यारा
बचपन की खड़खड़िया थामे जैसे सँग-सँग चलती माँ।
हाड़-मांस, तन गला बर्फ-सा ठठरी-ठठरी चिता चढ़ी
आग में तप, जल-तरंग चढ़, चलती बेर लहरती माँ।
दूध का मोल सबसे ऊँचा, वही बसाता घर-संसार
उसी दूध का स्नेह निभाती, गिरि से सागर बहती माँ।
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