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{{KKRachna
|रचनाकार=दिविक रमेश
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>थकता तो होगा ही सूरज!
रोज सवेरे
इतना गट्ठर बाँध रोशनी
लाता है
चोटी तक ढोकर।
थकता तो होगा ही सूरज!
पर किससे पूछूँ यह भाई
कैसे उड़
आकाश में जाता?
पूरा गट्ठर खोल रोशनी
सारी धरती को नहला कर
कैसे चुपके उतर धरा पर
लंबी डुबकी
ले खो जाता!
शायद दूर-दूर तक जाकर
फिर बरसाने को धरती पर
गट्ठर बाँध रोशनी लाता।
थकता तो होगा ही सूरज!
</poem>
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|संग्रह=
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<poem>थकता तो होगा ही सूरज!
रोज सवेरे
इतना गट्ठर बाँध रोशनी
लाता है
चोटी तक ढोकर।
थकता तो होगा ही सूरज!
पर किससे पूछूँ यह भाई
कैसे उड़
आकाश में जाता?
पूरा गट्ठर खोल रोशनी
सारी धरती को नहला कर
कैसे चुपके उतर धरा पर
लंबी डुबकी
ले खो जाता!
शायद दूर-दूर तक जाकर
फिर बरसाने को धरती पर
गट्ठर बाँध रोशनी लाता।
थकता तो होगा ही सूरज!
</poem>