भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अब्दुल मलिक खान |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अब्दुल मलिक खान
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>देखो लगी गाँव की हाट,
बड़े अनोखे इसके ठाट!
लड्डू, सेब, जलेबी, चक्की
सज धज कर बैठे थालों में
लाल गुलाबी पान बोलते-
हमको भी रख लो गालों में,
मूँछ मरोड़े घूमें जाट!
फरर-फर फर थान फट रहे
नमक-मिर्च के ढेर घट रहे,
कच्च-कच्च तरबूज कट रहे,
दुकानों पर लोग डट रहे,
बड़े मजे से खाते चाट!
गब्बा, सब्बा, रिद्दू, सिद्दू,
पहली बार हाट में आए,
लाए तेल चमेली का फिर-
हलवाई को वचन सुनाए,
चार किलो दो बरफी काट!
खरर-खरर सिल रहे घाघरे
चटपट चढ़ती जाए चूड़ी,
शाम हो गई, गाड़ी जोतो
रख दो अब बैलों पर जूड़ी,
पानी पीना गंगा घाट!
देखो बढ़ी गाँव की हाट!
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=अब्दुल मलिक खान
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>देखो लगी गाँव की हाट,
बड़े अनोखे इसके ठाट!
लड्डू, सेब, जलेबी, चक्की
सज धज कर बैठे थालों में
लाल गुलाबी पान बोलते-
हमको भी रख लो गालों में,
मूँछ मरोड़े घूमें जाट!
फरर-फर फर थान फट रहे
नमक-मिर्च के ढेर घट रहे,
कच्च-कच्च तरबूज कट रहे,
दुकानों पर लोग डट रहे,
बड़े मजे से खाते चाट!
गब्बा, सब्बा, रिद्दू, सिद्दू,
पहली बार हाट में आए,
लाए तेल चमेली का फिर-
हलवाई को वचन सुनाए,
चार किलो दो बरफी काट!
खरर-खरर सिल रहे घाघरे
चटपट चढ़ती जाए चूड़ी,
शाम हो गई, गाड़ी जोतो
रख दो अब बैलों पर जूड़ी,
पानी पीना गंगा घाट!
देखो बढ़ी गाँव की हाट!
</poem>