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सूरज लगे आग का गोला / हरि मृदुल

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<poem>सूरज लगे आग का गोला
चंदा लगे कटोरी,
सूरज किरनें पीला सोना
लगे चाँदनी गोरी।
बड़ा अनोखा इंद्रधनुष है
सतरंगा चमकीला,
गोल-गोल कुछ झुका-झुका-सा
रंग-बिरंगा टीला।
ये पतंग है कैसी जिसकी
दीख पड़े ना डोरी!
आसमान में पंछी उड़ते
ऐसे साँझ-सवेरे,
लटक रही हो रस्सी जैसे
घर के ऊपर मेरे।
करे न कोई आपाधापी
करे न जोरा-जोरी!
कभी-कभी बादल आ जाते
जैसे धुनी रुई,
किसने धुना, कौन बतलाए
बातें हवा हुईं।
कौन बुलाता, कौन भेजता
इनको चोरी-चोरी!
</poem>
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