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घुमक्कड़ चिड़िया / इंदिरा गौड़

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<poem>अरी! घुमक्कड़ चिड़िया सुन
उड़ती फिरे कहाँ दिन-भर,
कुछ तो आखिर पता चले
कब जाती है अपने घर।

रोज-रोज घर में आती
पर अनबूझ पहेली-सी
फिर भी जाने क्यों लगती
अपनी सगी सहेली-सी।
कितना अच्छा लगता जब-
मुझे ताकती टुकर-टुकर!

आँखें, गरदन मटकाती
साथ लिए चिड़ियों का दल
चौके में घुस धीरे-से
लेकर गई दाल-चावल।
मुझको देख उड़न-छू क्यों,
क्या लगता है मुझसे डर!

कितना अच्छा होता जो
मैं भी चिड़िया बन जाती,
जाकर पार बादलों के
चाँद-सितारे छू आती।
अपना फ्रॉक तुझे दूँगी,
तू मुझको दे अपने पर।
</poem>
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