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|रचनाकार=बलबीर सिंह 'रंग'
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|संग्रह=
}}
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<poem>धोती पर बंगाली कुरता, ढीला खादी वाला,
बड़े-बड़े नेताओं जैसा ओढ़े हुए दुशाला।
इनके और चित्र भी मैंने देखे अखबारों में,
सेनापति की तरह खड़े हैं फौजी सरदारांे में।
अब पढ़ने के लिए साथियों की टोली चल दी है,
इनकी पूरी कथा बता माँ, मुझे बहुत जल्दी है।
राष्ट्र-मुक्ति हित मातृ-भूमि की गोदी छोड़ गए थे,
मायावी-साम्राज्यवाद के बंधन तोड़ गए थे।
इनकी युद्ध-पताका ‘विजयी-विश्व-तिरंगा प्यारा’,
समर घोष ‘जय हिंद’ ‘चलो दिल्ली’ है इनका नारा।
सिंगापुर के मैदानों में गूँजी इनकी वाणी,
‘मुझे खून दो तुम, मैं दूँगा स्वतंत्रता कल्याणी!’
ये जन-जन के मन पर, बरबस कर लेते जादू हैं,
स्वतंत्र भारत के ‘नेताजी’ ये सुभाष बाबू हैं!’
-साभार: रंग की राष्ट्रीय कविताएँ, 307
</poem>
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बड़े-बड़े नेताओं जैसा ओढ़े हुए दुशाला।
इनके और चित्र भी मैंने देखे अखबारों में,
सेनापति की तरह खड़े हैं फौजी सरदारांे में।
अब पढ़ने के लिए साथियों की टोली चल दी है,
इनकी पूरी कथा बता माँ, मुझे बहुत जल्दी है।
राष्ट्र-मुक्ति हित मातृ-भूमि की गोदी छोड़ गए थे,
मायावी-साम्राज्यवाद के बंधन तोड़ गए थे।
इनकी युद्ध-पताका ‘विजयी-विश्व-तिरंगा प्यारा’,
समर घोष ‘जय हिंद’ ‘चलो दिल्ली’ है इनका नारा।
सिंगापुर के मैदानों में गूँजी इनकी वाणी,
‘मुझे खून दो तुम, मैं दूँगा स्वतंत्रता कल्याणी!’
ये जन-जन के मन पर, बरबस कर लेते जादू हैं,
स्वतंत्र भारत के ‘नेताजी’ ये सुभाष बाबू हैं!’
-साभार: रंग की राष्ट्रीय कविताएँ, 307
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