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रेवड़ी / सीताराम गुप्त

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<poem>ठेलों चढ़ी, मेलों चढ़ी,
बाजार-हाटों में अड़ी!
कैसी कड़कती ठंड में-
डटकर खड़ी है रेवड़ी!

तिल-मोतियों से तन जड़ा
मन में बसा है केवड़ा;
लेकर गुलाबों की महक-
लो चल पड़ी है रेवड़ी!

क्या चीज मोतीचूर है,
यह डालडा से दूर है!
ले चाँद की गोलाइयाँ
किसने गढ़ी है रेवड़ी!

खुद होंठ खुलने लग गए,
खुद दाँत चलने लग गए,
आवाज कुरमुर की हुई,
ज्यों हँस पड़ी हो रेवड़ी!

बूढ़े फिसलने लग गए,
बच्चे मचलने लग गए,
दाँतों से कुश्ती के लिए-
ज़िद पर अड़ी है रेवड़ी!

बच्चो, कहावत है सुनो,
क्या अर्थ है इसका गुनो,
अंधे ने अपनो को सदा
बाँटी बहुत है रेवड़ी!
</poem>
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