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{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सरोजिनी कुलश्रेष्ठ
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatBaalKavita}}
<poem>माँ! धरती क्यों डोल रही थी,
‘घुर-घुर’ कर क्यों बोल रही थी?
इसके ऊपर हम रहते हैं,
कूद-फाँद करते रहते हैं।
तब सह लेती सब शैतानी,
कभी न की इतनी मनमानी।
अब क्यों हमको तोल रही थी,
माँ, धरती क्यों डोल रही थी?
क्या पहाड़ का बोझ बढ़ गया,
क्या समुद्र का नाप बढ़ गया?
बोलो माँ, क्या हुआ इसे था,
गुस्सा आया व्यर्थ इसे था!
दुःख में सबको घोल रही थी,
माँ, धरती क्यों डोल रही थी?
लोग मर गए इतने सारे,
बिछुड़ गए आफत के मारे।
कुछ रोते रह गए बिचारे,
घर भी टूट गए हैं सारे!
क्यों ऐसा विष घोल रही थी,
माँ, धरती क्यों डोल रही थी?
</poem>
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|रचनाकार=सरोजिनी कुलश्रेष्ठ
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>माँ! धरती क्यों डोल रही थी,
‘घुर-घुर’ कर क्यों बोल रही थी?
इसके ऊपर हम रहते हैं,
कूद-फाँद करते रहते हैं।
तब सह लेती सब शैतानी,
कभी न की इतनी मनमानी।
अब क्यों हमको तोल रही थी,
माँ, धरती क्यों डोल रही थी?
क्या पहाड़ का बोझ बढ़ गया,
क्या समुद्र का नाप बढ़ गया?
बोलो माँ, क्या हुआ इसे था,
गुस्सा आया व्यर्थ इसे था!
दुःख में सबको घोल रही थी,
माँ, धरती क्यों डोल रही थी?
लोग मर गए इतने सारे,
बिछुड़ गए आफत के मारे।
कुछ रोते रह गए बिचारे,
घर भी टूट गए हैं सारे!
क्यों ऐसा विष घोल रही थी,
माँ, धरती क्यों डोल रही थी?
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