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तलाश / पृथ्वी पाल रैणा

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ख़ूब से हो ख़ूबतर
यह ज़िन्दगी,
सोचकर यह बात
मैं निकला था घर से ।
आँधियों ने इस क़दर घेरा
कि बस
छटपटाते इस तरफ़
से उस तरफ़
फिरता रहा ।
वक़्त तो रुकता नहीं
ज़िन्दगी थमती नहीं ।
ढल गई जब उम्र तो
देखा कि मैं इक
अजनबी गुमराह सा
घर से केवल
दो क़दम ही दूर था ।



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