भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
903 bytes added,
20:03, 13 अक्टूबर 2015
{{KKGlobal}}मैंने लौ रक्खी थी और उसने हवा रक्खी थी{{KKRachnaइक दिया था जहाँ दोनों की अना<ref>घमंड</ref> रक्खी थी|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]}}उसका ही काम अँधेरे को बढ़ाना होगाजिसकी दूकान पे आँखों की दवा रक्खी थी वो भी उस रोज़ बहुत ख़ुश था हवा भी थी ख़ुनक<ref>ठंडी</ref>और कुछ थोड़ी से मैंने भी लगा रक्खी थी तू नहीं है मिरी कश्ती का मुहाफ़िज़<ref>रक्षक</ref>वो हैमैंने मांझी से यही शर्त लगा रक्खी थी घर मेरा छीनती कैसे न हवेली आख़िरमैंने ख़ुद बीच की दीवार हटा रक्खी थी{{KKCatGhazalKKMeaning}}</poem>
भूख का सिलसिला बताता है
आदमी आदमी को खाता है