भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='क़ैसर'-उल जाफ़री |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='क़ैसर'-उल जाफ़री
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जायेंगे ऐसा लगता है
कितने दिनों के प्यासे होंगे यारों सोचो तो
शबनम का क़तरा भी जिन को दरिया लगता है
आँखों को भी ले डूबा ये दिल का पागल-पन
आते जाते जो मिलता है तुम सा लगता है
इस बस्ती में कौन हमारे आंसू पोंछेगा
जो मिलता है उसका दामन भीगा लगता है
दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
किसको पत्थर मारूँ 'क़ैसर' कौन पराया है
शीश-महल में एक एक चेहरा अपना लगता है
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार='क़ैसर'-उल जाफ़री
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जायेंगे ऐसा लगता है
कितने दिनों के प्यासे होंगे यारों सोचो तो
शबनम का क़तरा भी जिन को दरिया लगता है
आँखों को भी ले डूबा ये दिल का पागल-पन
आते जाते जो मिलता है तुम सा लगता है
इस बस्ती में कौन हमारे आंसू पोंछेगा
जो मिलता है उसका दामन भीगा लगता है
दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
किसको पत्थर मारूँ 'क़ैसर' कौन पराया है
शीश-महल में एक एक चेहरा अपना लगता है
</poem>